Monday, 19 April 2021

Ellora Caves - Indian Rock-Cut Architecture

 The Hindu, Buddhist and Jain Caves at Ellora were chiseled between the 4th and the 9th centuries. Ellora, considered amongst the finest examples of rock-cut architecture, dates back to the Rashtrakuta Dynasty, about 1,500 years ago. Of the 34 caves, 12 are Buddhist, 17 Hindu and 5 Jain. Maintained by the Archaeological Survey of India (ASI), The Ellora Caves were declared a World Heritage Site in 1983.






















Saturday, 17 April 2021

भगवान जगन्‍नाथ जी का मंदिर - जो देता है मानसून के दस्‍तक की जानकारी

भगवान जगन्‍नाथ जी का मंदिर: जो देता है मानसून के दस्‍तक की जानकारी  



कानपुर जिले की घाटमपुर तहसील के बेहटा गांव में भगवान जगन्‍नाथ जी का एक मंदिर है। इस मंदिर में मानसून आने से ठीक 15 दिन पहले मंदिर की छत से पानी टपकने लगता है। इसी से आस-पास के लोगों को बारिश के आने का अंदाजा हो जाता है। 

कहा जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 5 हजार साल पुराना है। यहां मंदिर में भगवान जगन्‍नाथ, बलदाऊ और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं। इनके अलावा मंदिर में पद्मनाभम की भी मूर्ति स्‍थापित है। स्‍थानीय निवासियों के अनुसार सालों से वह मंदिर की छत से टपकने वाली बूंदों से ही मानसून के आने का पता करते हैं। कहते हैं कि इस मंदिर की छत से टपकने वाली बूंदों के हिसाब से ही बारिश भी होती है। 

यदि बूंदे कम गिरीं तो यह माना जाता है बारिश भी कम होगी। इसके उलट अगर ज्‍यादा तेज और देर तक बूंदे गिरीं तो यह माना जाता है कि बारिश भी खूब होगी। बताते हैं कई बार वैज्ञानिक और पुरातत्‍व विशेषज्ञों ने मंदिर से गिरने वाली बूंदों की पड़ताल की। लेकिन सदियां बीत गई हैं इस रहस्‍य को, आज तक किसी को नहीं पता चल सका कि आखिर मंदिर की छत से टपकने वाली बूंदों का राज क्‍या है। 

मिश्र के पिरामिडों के समान है असमिया मैदाम परंपरा

 


असम के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखते हुए आहोम राजवंश ने मैदाम नामक एक अलग तरह की स्पापत्थशैली इस प्रदेश को दी। यह अपने ही तरह की एक अनोखी कलाकृति है। जिसप्रकार मिश्र में पिरामिड हैं, उसी प्रकार असम में मैदाम हैं। आहोम स्वर्गदेउ यानी राजा तथा राज परिवार के लोगों की मृत्यु के बाद उनके शवों को रखने के लिए पहाड़ों की तरह मिट्टी से बनी समाधि को मैदाम कहा जाता है। इसमें उन शवों के साथ यथेष्ठ पैसा, सोना आदि भी रखा जाता था। 

मैदाम में मृतक का शरीर बहुत ही सावधानीपूर्वक रखा जाता था। लोगों में विश्वास है कि मृतक की आत्मा ही इन धन संपत्तियों की रखवाली करती है। इसे लेने की कोशिश करने वाले की मृत्यु निश्चित मानी जाती थी। इस तरह के प्रवादों ने जिस तरह मैदामों को सुरक्षित रखा। मैदामों में जिस तरह से शवों के संस्कार किये जाते थे, वह प्रचलित सनातन परंपरा में प्रचलित संस्कार पद्धति से भिन्न है। परंतु वह इस्लाम अथवा क्रिश्चियनों की शवों को दफनाने की प्रक्रिया से भी भिन्न है।

मैदाम बनाने के नियमानुसार पहले समाधि के लिये एक छोटा सा परंतु सुंदर घर बनाया जाता है और फिर उसके अंदर मृतक द्वारा प्रयोग किये जाने वाले साजों समान, धन-संपत्ति आदि के साथ शव को स्थापित कर घर का दरवाजा बंद कर दिया जाता है। उसके बाद उस घर के ऊपर मिट्टी डालकर टीले की तरह की आकृति बनायी जाती है। व्यक्ति के पद के अनुसार ही धन-संपत्ति दिया जाता था और टीले का आकार भी उसी अनुसार छोटा बड़ा होता था। चाहे मैदाम जितना भी छोटा हो, फिर भी हर मैदाम इतना ऊंचा तो होता ही था कि आसानी से और दूर से उस पर लोगों की नजर पड़ सके। मैदाम की प्रत्येक आकृति जैसे उन राजाओं का जीवित स्वरूप है, इसीलिये आज भी लोग मैदामों के सामने अपना सिर झुकाते हैं।


इन मैदामों के लेकर लोगों के बीच अनेक अलौकिक कथायें भी प्रचलित है। लोग मानते है कि इसके साथ आत्माओं का संबंध है। मृतक की आत्मा यहां विचरती रहती है। भरी दोपहरी के समय वहां बूढ़ा डांगरिया (एक तरह की अलौकिक आत्मा जो इंसानों की तरह रूप धरता है। धोती कृर्ता पगड्डी पहनकर घूमता फिरता है और दिव्य पुरुष की तरह दिखता है जो किसी किसी को ही दिखता है) के निकलने की बात भी प्राय: लोगों से सुनी जाती है। 

लोग यह भी कहते है कि उन्होंने राज:अधिकारियों का इकट्टे मंत्रणा करते हुए भी देखा है। मैदाम में यक्षों का नाचना, अतृप्त आत्माओं द्वारा लोगों को हाथ हिलाकर बुलाना अचानक आग जल उठना, राज के अंधेरे में चारों ओर जंगलों में से आत्माओं की शोर सुनायी देना, वहां समाधिस्थ धन लूटने की कोशिश करने वालों को आत्माओं द्वारा पीछा करना या प्रतिशोध लेना मैदाम के अंदर घुसने की कोशिश करने पर किसी के द्वारा गला दबा देना आदि आदि अनेक कथा कहानियां विश्वास के रूप में लोगों के बीच प्रचलित है। 

इसमें और एक बात यह भी है कि इस तरह की बातें लोगों के मुंह में पड़कर अति हो जाती है इस तरह की किंवदंतियों ने जिस प्रकार लोगों के मन में मैदामों के प्रति भय व भक्ति का भाव जगाया ठीक वैसे ही इससे दूर भी रखा। कुल मिलाकर मैदामों को लेकर लोगों में अनेक जनश्रुतियां आज तक वर्तमान है।



मैदाम आहोम संप्रदाय से जुड़ें लोगों के शव रखने वाली एक समाधि है। इसके साथ इस संप्रदाय की भावनाएं जुड़ी हुई थीं। किंतु कई सौ वर्ष बीत जाने के बाद अब यह पूरी असमिया जाति की भावनाओं से जुड़ गई है। किंतु उचित देख-रेख के अभाव में इसकी अब तक अनेक क्षति हो चुकी है। इनमें रखी संपत्तियों को पाने के लोभ से लोगों ने इन्हें ढहाने की कोशिशें भी कीं। मौसम की मार के कारण इसकी आकृति में भी परिवर्तन आ चुका है। मैदाम शब्द मय और हाम इन दोनों शब्दों के योग से बना है। इसका अर्थ है मृतक का घर। श्री आइम्याखेंग योहाजि के अनुसार मै शब्द के साथ डाम शब्द के योग से मैदाम शब्द बना है। इसी प्रसंग में उल्लेख किया गया है कि मैं काउ सिर की हड्डी और मैं +डमि सिर = के देवता। स्वर्गदेउ लोगों को चाउ-लू कहकर संबोधित किया जाता था। इसीलिये राजा या स्वर्गदेउ देवतुल्य है। इन स्वर्गदेउ लोगों के सिर को जहां समाधिस्थ किया जाता है वही मैदाम है। यहां मैदाम शब्द का अर्थ केवल राजाओं के लिये ही प्रयोग हुआ है, जबकि राज परिवार व राजा के दरबार के अन्य उच्च अधिकारियों के लिये भी मैदान बनाने का नियम था। राजाओं के लिये बनाये गये सारे मौदान तब की आहोम राजधानी चराइदेउ में बनाये गये थे। बाकी लोगों के मैदाम पूर्वी असम के विभिन्न स्थानों में हैं। पहले राजाओं के लिये ही बनाये जाने के कारण संभवत: इस शब्द का अर्थ भी केवल राजाओं को ही दर्शाता है। अन्य एक व्याख्या में कहा गया है कि आहोम वंशावली के प्रथम पुरुष चाउलुंग चुकाफा से ही इस समाधि का नाम मैदान पड़ा। ‘फि-डाम’ अथवा मुख्य देवता चुकाफा को यहां समाधिस्थ किया गया था और इनका पवित्र सिर अथवा ‘मै’ को ‘डाम’ अथवा देवताओं की तरह पूर्ण मर्यादा के साथ मिट्टी से टीले की तरह आकृति बनाकर प्रतिष्ठा की गयी थी। इसीलिये इसका नाम मैदाम पड़ा। आहोमों की पुरानी परंपरा अनुसार किसी की मृत्यु के बाद मृतक के शरीर को साफ-सफाई करके प्रेमपूर्वक वस्त्र-आभूषण आदि देकर उसकी डाम पूजा की जाती थी। इसके बाद उसे समाधि में रखा जाता था। समझा जाता है कि इस डाम की दाम हो गया है।


मैदाम के आकार प्रकार तथा स्थापत्य विज्ञान आदि के बारे में बताने वाली कोई विशेष साहित्य तो उपलब्ध नहीं है लेकिन चराइदेउ इतिवृत (पुरानी आहोम राजधानी चराइदेउ ही थी, जहां राजाओं या स्वर्गदेउओं के मैदाम स्थित हैं) नामक निबंध में श्री विश्वमहल फुकनजी ने लिखा है कि आहोमों के मैदाम की पद्धति यह है कि पहले उत्तर-पश्चिम दिशा में छह हाथ लंबे और चार हाथ चौड़े सीने तक की गहराईवाला एक गड्डा खोदा जाता है। शव को दुगयुंग जोकि एक तरह का कॉफिन जैसा बक्सा होता है, में डालकर उसके ऊपर काठ डालकर अच्छे से बंद कर गड्डे में डाला जाता है। वह शव अगर राजा अथवा किसी राज अधिकारी का हुआ तो उसके चारों ओर आठ कोणयुक्त परिधि में एक घर बनाया जाता है। मैदाम ऊपर की तरफ नोक की तरह हो, इसपर विशेष ध्यान दिया जाता है। प्रक्रिया के समाप्त होने पर वहां जाने वाले सभी लोग मैदाम को प्रणाम करते हैं और पंडित द्वारा अभिमंत्रित तेल सभी को स्पर्श करने के लिये दिया जाता है। इसके बाद सब अपने घर को लौटते हैं।

इसके अलावा असम के पहले अखबार अरूणोदय तथा प्रबुद्ध सहित्यिक लीला गोगोई की लेखनियों में छिटपुट रूप वर्णन मिलता है, उसमें इसके नियमों में थोड़ा अंतर मिलता है। परंतु मुख्य बातें समान ही हैं। बाद के समय में यद्यपि आहोमों ने सनातन परंपरा के विभिन्न संस्कारों को अपना लिया था किंतु फिर भी स्वर्गदेउ तथा राज—अधिकारियों ने मैदाम बनाने की परंपरा को छोड़ा नहीं था। स्वर्गदेउ रुद्रसिंह के शासन काल में शव को दाह करने की बात को लेकर विवाद होने की कथा भी जनश्रुतियों में प्रचलित है।

अगर हम मैदाम की स्थापत्य शैली की बात करें तो इसका बाह्य आकार बौद्धस्तूपों के समान दिखता है। किंतु साथ ही अंदर के हिस्से का गह्वरविशिष्ट नागर शैली के हिंदू मंदिरों के समान होता है। यह मैदाम ईंट-पत्थरों से बनी अपनी ही तरह की एक अनोखी रचना है। मैदामों के अध्ययन से यह पता चला है कि इसे बनाने के लिये एक छोटे से पहाड़ के ऊपर के हिस्से को समतल कर उसके बीच एक लंबे चौड़े और आयताकार गहरा गडढ़ा बनाकर ईंट और पत्थरों से एक मजबूत गुफा तैयार की जाती थी। इन गुफाओं के कठिन दीवारों के ऊपर के अंश में दीवार खड़ी कर मंदिरों के शिखर जैसी आकृति बनायी जाती थी। इसीलिये यह ईंट पत्थर से निर्मित गह्वरयुक्त हिंदू मंदिर की तरह बन पड़ता था। इस घर में शव को रखने के बाद पत्थरों के द्वारा आने जाने का रास्ता बंद कर दिया जाता था। इसके बाद ही उस पर मिट्टी से टीले के जैसी आकृति बनायी जाती थी।



जहां तक मैदामों के विविध रूपों की बात है मैदाम निर्माण में व्यवहृत सामग्रियों के आधार पर से स्थायी और अस्थायी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। दोनों ही मृतक के पद मर्यादा के आधार पर छोटे बड़े हो सकते हैं। स्वर्गदेउ रूद्र सिंह (1696—1714) के शासन के पूर्व के समय में मैदामों के अंदर का घर काठ से बना हुआ होता था। यह काठ का घर एक अथवा कई कमरों का होता था। मेटेका स्थित मैदाम के खनन के तीन कमरों का उद्धार हुआ था।

नये राजा के निर्देश से ही मृत राजा के सत्कार की व्यवस्था की जाती थी। शवयात्रा में भी कुछ विशेष लोग ही भाग ले सकते थे। इस यात्रा का इंतजाम कुछ इस तरह से किया जाता था जैसे कि वह किसी जीवित राजा की यात्रा हो। पानवाला पीकदान पकडऩेवाला, हुक्का पकडऩेवाला, तलवार लेने वाला, मालिश करने वाला तथा अन्य दास दासियां आदि साथ चलते थे और अपना कर्तव्य करते जाते थे। ये सभी लोग मृतक को लेकर जब चल रहे होते थे तो प्रजा पूर्व की भांति ही अपनी फरियाद लेकर आ सकती थी और राजा के सेवक ही उस पर विचार कर राजा के नाम पर निर्णय सुनाते थे।

शव मैदाम क्षेत्र पहुंचने तक भी यदि उसे बनाने को काम संपूर्ण नहीं होता तो संपूर्ण होने तक शव को गोगोठा नगरे में रखा जाता था। मैदाम बनाने समय जिनता कम लगे उतनी ही अच्छी सिथति में शव की समाधि दी जा सकती थी। अधिकतम ग्यारह दिन तक समय लगने की बात का भी उल्लेख है। किंवदंति है कि मैदाम बनने तक मृतदेह को कई दिनों तक अक्षत अवस्था में रखना पड़ता था। इसीलिय विशेष औषधि का प्रयोग किया जाता था। विशेष रस में डूबाकर रखने अथवा शरीर में शहद लगाने की बात भी कही जाती है। जहां तक मैदाम निर्माण के विकासक्रम की बात है, यह चुकाफा के द्वारा असम में आहोम शासन के प्रारंभ के समय से ही चला आ रहा था।

चराइदेउ स्थित मैदाम के अलावा शेष सभी मैदाम काठ से ही बनाये गये थे। विभिन्न प्राकृतिक कारणों से ढह चुके अथवा किसी दुष्ट व्यक्ति के खोदने के कारण जो मैदाम अंदर की ओर से खुल गये हैं, वहां कई बार असंख्य काठों का उद्धार हुआ है। एक से छह कमरे वाले घर मैदामों के अंदर पाये गये है। काठ के बने इस तरह के मैदामों को अस्थायी मैदाम की श्रेणी में रखा जाता है। ईंट पत्थर से बनने वालों को स्थायी मैदाम की श्रेणी में रखा जाता है। स्थायी मैदामों में गदाघर सिंह का मैदाम ही सबसे पुराना है और उनकी मृत्यु 1696 में हुई थी। इस हिसाब से सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक ही इस तरह के मैदाम बने थे। इसमें विभिन्न प्रकार के पत्थर ईंट, गुड़, एक विशेष प्रकार के दाल, चूना, तेल आदि का प्रयोग पत्थरों को जोडऩे के लिए होता था। मिट्टी के बने टीले की आकृति के बाह्य भाग में भी धीरे-धीरे ईंटों का प्रयोग होने लगा था। सामने की ओर भी आकर्षक ढांचे जुडऩे लगे थे।

मैदामों के साथ जड़ी एक आश्चर्यजनक और उल्लेखनीय बात यह भी है कि जीवित इंसान और अन्य प्राणियों को समाधिस्थ करने का उल्लेख भी विभिन्न स्थानों में किया गया है। मैदामों में राजा के साथ हाथी तक को समाधि देने की बात इतिहासकारों ने कहा है। प्रथम असमिया अखबार अरूणोदय, मुगल इतिहासकार सहाबुद्दिन तलिस, इतिहासकार एडवार्ड गैट ने भी इसका समर्थन किया है। अंत तक आहोमों ने सनातन परंपरा के अनुसार दाहसंस्कार करना प्रारंभ कर दिया। इसलिये मैदाम परंपरा भी कमजोर होने लगी। परंतु मृतक सत्कार में दाह संस्कार को अपनाया गया तो चिता के भस्म को ही मैदाम में स्थापित किया गया। फलस्वरूप जीवित प्राणी को राजा के साथ समाधि देने का नियम लुप्त हुआ और मैदाम का आकार भी छोटा हो गया।

मैदामों के संरक्षण के लिये आहोम प्रशासन की ओर से विशेष व्यवस्था की जाती थी। इसके देख-रेख के लिये मैदाम फुकन नामक एक अधिकारी हुआ करता था। मैदाम फुकन पहरे की व्यवस्था, चारों ओर के जंगलों को काटकर साफ सफाई की व्यवस्था, मैदाम के साथ जुड़ी पूजा आदि की व्यवस्था का ध्यान रखते थे। इसके साथ जुड़े अन्य एक अधिकारी था – मेचाई फुकन। ये मैदाम में फूलों के बगीचे के साथ साथ पूजा आदि धार्मिक चीजों पर विशेष ध्यान देते थे। मैदाम निर्माण के दौरान सभी देख रेख तथा बन जाने के बाद धूप-बारिश के समय इसके मरम्मत के सभी दायित्वों का ये निर्वाह करते थे। आसपास के ग्रामीण तथा नागरिक भी नैतिक दायित्व के तहत इस पर ध्यान देते थे। जहां तक मैदाम में समाधिस्थ धन संपत्तियों के संरक्षण की बात है, स्थानीय लोगों से अधिक विदेशी आक्रमणकारियों ने इसकी हानि पहुंचायी । वर्ष 1662 में जब मुगल सेनापति मीर जुमला ने राजधानी गडग़ांव पर अधिकार कर लिया कुछ स्थानीय लोगों की मदद से इस गुप्तधन को पाने के लिये उसने इस मैदाम खोद डाला। उसी जमाने में उन्हें नब्बे हजार रुपये भी मिले। उल्लेख है कि एक राजकुमारी के मैदाम में पान रखने का एक सोने का डब्बा भी मिला था। इस तरह हासिल करने वाली लूट की साम्रयां इतनी अधिक थीं कि मुगल सेना के नाविक ग्लेनियस ने असम छोड़ते समय लिख था कि उन्हें असम से अधिक सोने चांदी की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि मैदाम खोदकर जितने मिले थे उतना काफी था। जिन दस मैदामों की उनलोगों ने खुदाई की थी, उनमें से छह राजाओं के थे। उन छह राजाओं के नाम हैं – चुहुंगमुंग अथवा दिहिंगीया राजा, चुक्लेंगमुंग अथवा गडग़ञा राजा, चुखांगफा अथवा खोराराजा, चुचेंगफा अथवा बूढ़ाराजा प्रतापसिंह, चुरामफा अथवा भगराजा और च्युतिनफा अथवा नरिया राजा।

जहां तक अब असम में प्राचीन धरोहर के रूप में मैदामों के महत्व संरक्षण आदि की बात है काफी समय तक इस पर अच्छे से ध्यान ही नहीं दिया गया। बड़े आकार के अधिकतर मैदाम पहले ही इसमें छिपे संपत्तियों के लालच में स्थानीय तथा विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा नष्ट किये जा चुके हैं। सोना, चांदी, इससे बने पात्र मोहर आदि को लूट ही लिया गया। इसके अलावा बहुमूल्य काठ के बने सामान और मुगा के कीमती धागे से बने कपड़े तथा इस तरह के अन्य सामानों, जिन्हें कम मूल्य का होने के कारण लूटेरों ने छोड़ दिये थे, वे भी भग्नप्राय मैदामों में धूप-बारिश की मार झेलकर सड़ते रहे। देख देख का अभाव तो था ही। इस उपेक्षा ने मैदामों की बहुत नुकसान पहुंचाया। पर्यटन स्थल बनने की बजाय ये वीरान स्थान बन गये। पेड़-पौधे उगकर जंगल बन गये। बड़े पेड़ों के जड़ों ने मैदामों के अंदर तक घर कर लिया और ढांचे फट गये। पठारों के बीच खुली जगहों में बने मैदामों को भी लोगों ने धीरे धीरे काटकर ढहाने की कोशिश की। लोगों ने घर बनाया, खेत के लिये जमीन निकाली। जयसागर इलाके में स्थित सभी मैदाम अब लुप्त हो गये हैं। गुवाहाटी शहर के बीचोंबीच स्थित एक मैदाम पर रेलवे कॉलोनी ने कब्जा कर लिया। इस तरह असम का धरोहर यह मैदाम अब लुप्तप्राय अवस्था में है।

पिछले कुछ वर्षों से सरकार की ओर से इसके संरक्षण व उन्नयन के लिये थोड़े बहुत कदम उठाये गये हैं, पर ये यथेष्ट नहीं है। इसकी मरम्मत कर, घास उगाकर मिट्टी को ढहने को रोककर, इसके परिसर में बगीचा आदि बनाकर लोगों के ध्यानाकर्षण की कोशिश की जा रही है। असम के बाहर इसके बारे में अभी तक अधिक प्रचार प्रसार भी नहीं हुआ है, जबकि ये मिश्र के पिरामिडों की भांति ऐतिहासिक धरोहर हो सकते हैं। मैदामों के द्वारा मानव सभ्यता की एक रीति और परंपरा जुड़ी हुई है। इस तरह के मृतक सत्कार की पंरपरा विश्व के विभिन्न देशों में विभिन्न जातियों में विभिन्न सभ्यताओं में प्रचलित थी। मैदाम की परंपरा भी उसी कड़ी में आती है। इसीलिए केवल प्रादेशिक ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इस पर उचित अध्ययन, विश्लेषण और शोध की आवश्यकता है।

रागों में छुपा है स्वास्थ्य का राज

 


भारतीय संस्कृति को अपनी परम्पराओं, विशालता, जीवन्तता के कारण सर्वत्र सराहा गया है व विश्वभर में विद्यमान संस्कृतियों में श्रेष्ठतम माना गया है। 
भारतीय संस्कृति ने प्राचीन काल से ही विदेशियों को प्रभावित किया है। भारतीय चिन्तन के अनुसार भारतीय सभ्यता व संस्कृति की संवाहक हैं कलाएं। जीवन में सकारात्मक प्रवृत्ति, उल्लास व उत्साह भरने के लिए कलाएं मनुष्य को सदैव प्रेरित करती आई हैं जिनमें से सबसे उत्कृष्ट ललित कलाओं को माना गया है। 
इन ललित कलाओं में संगीत का स्थान सर्वोपरि है। संगीत एक ऐसी विधा है जो मानव चित्त पर विशेष व अमिट छाप छोड़ती है। भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व के अन्य देशों के संगीतों से श्रेष्ठ माना गया है। 
भारतीय शास्त्रीय संगीत का जन्म वैदिक युग में हुआ। उस समय संगीत ईश्वर प्राप्ति का सोपान था। 
देश के प्रमुख ग्रंथ गीता को श्रीकृष्ण ने बोलकर नहीं गाकर सुनाया, इसीलिए उसका नाम गीता पड़ा। 
ऋग्वेद में भी कहा गया है कि तुम यदि संगीत के साथ ईश्वर को पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा। संगीत में ईश्वर बसा हुआ है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की विशेषता राग पद्धति है जो किसी कलाकार की व्यक्तिगत प्रतिभा को सामने लाती है। स्वर तथा ताल किसी न किसी रूप में विश्व के सभी संगीतों में विद्यमान हैं लेकिन राग पद्धति केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत की विशेषता है। राग का मूल अर्थ रंगना है, अर्थात रंग देने की प्रक्रिया। राग मानव चित्त को अपने रंग में रंग देता है,जिससे मानव चित्त प्रसन्न हो उठता है।



भारतीय शास्त्रीय संगीत केवल जन मनोरंजन का ही साधन नहीं है, इसका सम्बन्ध प्रकृति व मानव शरीर से भी रहा है। 
भारत के प्राचीन वेदों में भारतीय संस्कृति व जीवन के तौर-तरीकों का वर्णन किया गया है। उसी में संगीत को सबसे बेहतर माना गया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत का मानव स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। संगीत के सातों सुरों सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि का शरीर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। 
योग में शरीर के सात चक्रों का वर्णन किया गया है जो मानव शरीर के विभिन्न भागों का संचालन करते हैं। संगीत के सात सुरों का इन सात चक्रों पर विभिन्न प्रभाव पड़ता है। 
सा मूलाधार, रे स्वाधिष्ठान, गा मणिपुर, मा अनाहत, पा विशुद्ध, धा आज्ञा और नि सहस्र चक्र को सुचारू रखने में मदद करते हैं। वेदों में संगीत को योग माना गया है जिससे मानव शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर रचना विज्ञान के अनुसार सभी बीमारियां वात, पित्त व कफ दोषों के कारण होती है। इन दोषों के निवारण में राग विशेष भूमिका निभाते हैं।



रागों से आत्मिक सुख की अनुभूति होती है जिसके कारण इसे रोग निवारण में उपयुक्त माना गया है। रागों से चिकित्सा को लेकर कुछ प्रयोग भी हुए हैं। 
20वीं सदी में पं. ओंकारनाथ ठाकुर ने राग पूरिया के चमत्कारिक गायन से इटली के शासक मुसोलिनी को अनिद्रा रोग से मुक्ति दिलाई थी। 
राग को अल्जाइमर के इलाज में भी लाभकारी माना गया है। अल्जाइमर रोग भूलने की बीमारी से सम्बन्धित है जो गंभीर अवस्था में रोगी के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट डां. आलिवर स्मिथ के अनुसार राग शिवरंजनी सुनने से स्मरण शक्ति बढ़ाई जा सकती है। 
वर्तमान में वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने प्रमाणित किया है कि 80 प्रतिशत बीमारियां मानसिक कारणों जैसे तनाव, चिंता, अवसाद आदि से होती है और संगीत एक ऐसी विधा है जिससे मानसिक संतुलन बना रहता है। 
रागों द्वारा चिकित्सा संगीत चिकित्सा कहलाती है। 
आज संगीत चिकित्सा पर शोध हो रहे हैं और इसके सकारात्मक परिणाम निकलकर सामने आए हैं। रागों को सुनने के लिए विशेष समय निर्धारित किए गए हैं। यूं तो संगीत किसी भी समय सुना जा सकता हैं लेकिन स्वस्थ रहने के लिए इसको समयानुसार सुनना चाहिए।
 आयुर्वेद के अनुसार वात, पित्त और कफ दोष दिन के 24 घंटों के दौरान चक्रीय क्रम में कार्य करते है। सभी राग अलग-अलग मनोवृत्ति से जुड़े हुए है जिसके कारण रागों का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। समयानुसार रागों को सुनकर रोगों पर नियंत्रण करके विशेष लाभ उठाया जा सकता है।




इसके अलावा राग मारवा और भोपाली सुनने से आंतें मजबूत होती है। वहीं मोबाइल, चलचित्र व खानपान प्रभावित होने के कारण विश्व में नपुंसकता के रोग बढ़ गए है। राग वसंत और राग सुरख नपुसंकता को दूर भगाते है। आसावारी, भैरवी व सुहानी राग सुनने से मस्तिष्क संबंधी रोगों व सिरदर्द से छुटकारा पाया जा सकता है।

इन रागों को सुनकर रोगों का उपचार किया जा सकता है। रागों को यदि ईश्वर की स्तुति में मिला दिया जाए तो इसका विशेष लाभ होता है। इससे आत्मिक शांति तो मिलती ही है साथ ही ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है। संगीत के सात स्वरों द्वारा ईश्वर की अराधना होती है। सा द्वारा ब्रह्मा, रे द्वारा अग्नि, गा द्वारा रूद्र, मा द्वारा विष्णु, पा द्वारा नारद, धा द्वारा गणेश और नि द्वारा सूर्य की उपासना की जाती है।



संगीत और प्रकृति के बीच संबंध


भगवान श्री कृष्ण जब बांसुरी बजाते थे तो गाय ज्यादा दूध देती थी। संगीत का प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। संगीत के सात स्वरों की उत्पत्ति भी प्रकृति से हुई है। सा की उत्पत्ति मोर के स्वर से, रे की उत्पत्ति ऋषभ जैसे बैल, गाय आदि। ग की उत्पत्ति अज यानि भेड़, बकरी, म क्रौंच पक्षी का स्वर है। प की उत्पत्ति कोयल से हुई है। कहा भी जाता है कि पंचम स्वर में कोयल बोले। ध धैवत है यानि घोड़ा और नि की उत्पत्ति हाथी के स्वर से हुई है। उल्लेखनीय है कि पक्षी, जीव-जन्तु केवल एक ही स्वर में बोल सकते हैं जबकि मनुष्य सारे स्वरों में गा सकता है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अकबर के दरबार में नवरत्नों में शामिल तानसेन राग मल्हार गाकर वर्षा ला देते थे और राग दीपक गाकर दीप जला देते थे। रागों के स्वर का प्रकृति पर विशेष प्रभाव पड़ता है। हाल ही में मध्यप्रदेश के वन विभाग में एक शोध हुआ जिसमें वृक्ष प्रजातियों को मशहूर सितार वादक रविशंकर की राग भैरवी में निबद्ध रचना सुनाई गई। राग से आंवला और सीताफल सरीखी फल प्रजातियों के बीजों में अंकुर फूटने की दर में 9 प्रतिशत का इजाफा हुआ। रागों से पशुओं के कठोर व्यवहार पर भी काबू पाया जा सकता है।

गौतम बुद्ध - बुद्ध के बारे में कुछ आकर्षक तथ्य

गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ। इनका जन्म लुंबिनी में 56...