Wednesday 9 June 2021

दिल्ली का लौह स्तम्भ - Iron pillar of Delhi



दिल्ली का लौह स्तम्भ - Iron pillar of Delhi

दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है। यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है। यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज 375 - 413) से निर्माण कराया गया, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, सम्भवतः 912 ईपू में। इस स्तम्भ की उँचाई लगभग 7 मीटर है और पहले हिन्दूजैन मन्दिर का एक भाग था। 
13वीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मन्दिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की। लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब 98% है और अभी तक जंग नहीं लगा है।



लगभग 1600 से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर संस्कृत में जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। 



चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। 1050 में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया।



इस स्तंभ की ऊँचाई 735.5 से.मी. है। इसमें से 50 सेमी. नीचे है। 45 से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है। इस स्तंभ का घेरा 41.6 से.मी. नीचे है तथा 30.4 से.मी. ऊपर है। इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी। स्तंभ का कुल वजन 6096 कि.ग्रा. है। 1961 में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। 



भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉo बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। माना जाता है कि 120 कारीगरों ने () दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया। आज से 1600 वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता। 

सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है। स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त 50 से 600 माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = १ मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है।




लौह स्तन्भ में वर्णित राजा चन्द्र की पहचान


इतिहासकारों ने महरौली के लोह स्तंभ को सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में रखा है और लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र को चंद्रगुप्त द्वितीय से जोड़ दिया है।

कुछ इतिहासकार मानते है कि उस लोह स्तंभ में जो लेख है वो गुप्त लेखो की शैली का है और कुछ कहते है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में एक स्तंभ नज़र आता है जिसपर गरुड़ है, पर वह स्तंभ कम और राजदंड अधिक नज़र आता है।




लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने वंग देश को हराया था और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था।

जेम्स फेर्गुससनजैसे पश्चिमी इतिहासकार मानते है कि यह लोह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है।



कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ सम्राट अशोक का है जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था। इस संबंध में एक तथ्य और है कि राजा "चंद्र" शब्द की पहचान सूर्यवंशी राजा रामचंद्र से भी है। जिनका साम्राज्य लंका के समुद्र तट तक था।




स्तम्भ-लेख


स्तम्भ की सतह पर कई लेख और भित्तिचित्र विद्यमान हैं जो भिन्न-भिन्न तिथियों (काल) के हैं। इनमें से कुछ लेख स्तम्भ के उस भाग पर हैं जहाँ पर पहुँचना अपेक्षाकृत आसान है। फिर भी इनमें से कुछ का व्यवस्थित रूप से अध्ययन नहीं किया जा सका है। इस स्तम्भ पर अंकित सबसे प्राचीन लेख 'चन्द्र' नामक राजा के नाम से है जिसे प्रायः गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा लिखवाया गया माना जाता है। यह लेख 33.5 इंच लम्बा और 10.5 इंच चौड़े क्षेत्रफल में है। यह प्राचीन लेखन अच्छी तरह से संरक्षित है है क्योंकि यह स्तम्भ जंग-प्रतिरोधी लोहे से बना है। 
किन्तु उत्कीर्णन प्रक्रिया के दौरान, लोहे का कुछ अधिक भाग कटकर दूसरे अक्षरों से मिल गया है जिससे कुछ अक्षर गलत हो गए हैं।



यस्य ओद्वर्त्तयः-प्रतीपमुरसा शत्त्रुन् समेत्यागतन् वङ्गेस्ह्वाहव वर्त्तिनोस्भिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिर् भुजेतीर्त्वा सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोर् ज्जिता वाह्लिकायस्याद्य प्यधिवास्यते जलनिधिर् व्विर्य्यानिलैर् दक्षिणाःखिन्नस्य एव विसृज्य गां नरपतेर् ग्गामाश्रितस्यैत्राम् मूर्(त्)या कर्म्म-जितावनिं गतवतः कीर्त्(त्)या स्थितस्यक्षितौशान्तस्येव महावने हुतभुजो यस्य प्रतापो महान्नधया प्युत्सृजति प्रनाशिस्त-रिपोर् य्यत्नस्य शेसह्क्षितिम्प्राप्तेन स्व भुजार्जितां च सुचिरां च ऐकाधिराज्यं क्षितौ चन्द्राह्वेन समग्र चन्द्र सदृशीम् वक्त्र-श्रियं बिभ्रातातेनायं प्रनिधाय भूमिपतिना भावेव विष्नो (ष्नौ) मतिं प्राणशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णौर्धिध्वजः स्थापितः




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